हाथरस की दलित कन्या के साथ चार नर-पशुओं ने जो कुकर्म किया है, उसने निर्भया कांड के घावों को हरा कर दिया है। यह दुष्कर्म और हत्या दोनों है। मैं तो यह कहूंगा कि कई मामलों में निर्भया-कांड से भी अधिक दु:खद और भयंकर स्थिति का निर्माण हो रहा है। यदि यह कोरोना महामारी का वक्त नहीं होता तो लाखों लोग सारे देश में सड़कों पर निकल आते और सरकारों को लेने के देने पड़ जाते।
यह ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मुस्तैद किया। इसके बाद योगी ने तुरंत सारे मामले की जांच के लिए विशेष कमेटी बिठा दी, लेकिन सारे मामले में हाथरस की पुलिस और डॉक्टरों के रवैए ने सरकार की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगा दिया है।
14 सितंबर को अपने गांव की दलित कन्या के साथ उच्च जाति के चार नर-पशुओं ने दुष्कर्म किया, उसकी जुबान काटी और उसके दुपट्टे से उसको घसीटा। हाथरस के अस्पताल में उसका ठीक से इलाज नहीं हुआ। आखिरकार 29 सितंबर को उसने दिल्ली के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। हाथरस की पुलिस ने लगभग एक हफ्ते तक इस जघन्य अपराध की रपट तक नहीं लिखी। फिर पुलिस ने आधी रात को उस कन्या का शव आग के हवाले कर दिया।
उसके परिजन ने इसकी कोई अनुमति नहीं दी थी और उनमें से वहां कोई उपस्थित भी नहीं था। अब यदि हाथरस के कनिष्ठ पुलिस वालों को मुअत्तिल कर दिया गया है तो यह मामूली कदम है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अपेक्षा है कि वे इन पुलिसवालों पर इतनी कठोर कार्रवाई करेंगे कि वह सारे देश के पुलिसवालों के लिए एक मिसाल बन जाए। इन पुलिसवालों का अपराध दुष्कर्मियों से कम नहीं है। यह स्थिति उत्तर प्रदेश सरकार के लिए खतरा पैदा कर देगी, बल्कि सारी भाजपा सरकारों के भविष्य को भी खटाई में डाल सकती है।
सबसे शर्मनाक बात यह कि पीड़िता की डॉक्टरी जांच के बाद कहा जा रहा है कि उसके साथ दुष्कर्म के प्रमाण नहीं मिले। क्या दुष्कर्म के प्रमाण 11 दिन तक टिके रह सकते हैं? उस युवती ने खुद दुष्कर्म की बात कही और उन नर-पशुओं के नाम बताए। मरने के पहले उसने जो बयान दिया, उस पर संदेह कर रहे हैं? उसके परिवार को नजरबंद कर दिया। उनके मोबाइल पुलिसवालों ने जब्त कर लिए, ताकि वे बाहरी लोगों से बात न कर सकें।
एक टीवी चैनल की साहसी महिला पत्रकारों ने हंगामा खड़ा न किया होता तो उस दलित परिवार से शायद कोई भी नहीं मिल पाता। अब उन दुष्कर्मियों पर मुकदमा चलेगा और उसमें, हमेशा की तरह बरसों लगेंगे। जब उन्हें सजा होगी, मामले को लोग भूल जाएंगे, जैसा निर्भया के मामले में हुआ था। उन अपराधियों को मौत की सजा जरूर हुई, लेकिन वह लगभग निरर्थक रही, क्योंकि जैसे अन्य मामलों में सजा-ए-मौत होती है, वैसे ही वह भी हो गई।
लोगों को सबक क्या मिला? क्या दुष्कर्मियों के दिलों में डर पैदा हुआ? क्या उस सजा के बाद दुष्कर्म की घटनाएं देश में कम हुईं? क्या हमारी मां-बहनें पहले से अधिक सुरक्षित महसूस करने लगीं? नहीं, बिल्कुल नहीं। निर्भया के हत्यारों को चुपचाप लटका दिया गया। जंगल में ढोर नाचा, किसने देखा? इन हत्यारों, इन ढोरों को ऐसी सजा दी जानी चाहिए, जो भावी अपराधियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ा दे।
अब इस दलित कन्या के दुष्कर्मियों और हत्यारों को मौत की सजा अगले एक सप्ताह में ही क्यों नहीं दी जाती? उन्हें जेल के अंदर नहीं, हाथरस के सबसे व्यस्त चौराहे पर लटकाया जाना चाहिए। उनकी लाशों को कुत्तों से घसिटवाकर जंगल में फिंकवा दिया जाना चाहिए। इस सारे दृश्य का भारत के सारे टीवी चैनलों पर जीवंत प्रसारण किया जाना चाहिए, तभी उस दलित कन्या की हत्या का प्रतिकार होगा। उसे सच्चा न्याय मिलेगा और दुष्कर्मियों की रुह कांपने लगेगी।
अभी हाथरस में हुए दुष्कर्म का खून सूखा भी नहीं है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि प्रांतों से भी नृशंस दुष्कर्मों की नई खबरें आती जा रही हैं। हाथरस में हुए दुष्कर्म ने भारत को सारी दुनिया में बदनाम कर दिया है। लंदन के कई अंग्रेज सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भेजकर सख्त कार्रवाई की मांग की है।
हाथरस में विपक्षी दलों के नेता पीड़िता के परिवार से मिलने के नाम पर अपनी राजनीति गरमा रहे हैं और भाजपा के नेता या तो मौन धारण किए हुए हैं या सारे मामले को शीर्षासन कराने की कोशिश में लगे हुए हैं। कांग्रेसी यदि हाथरस में नौटंकी रचा रहे हैं तो जयपुर में भाजपाई भी करतब दिखा रहे हैं।
देश में दुष्कर्म की दर्जनों घटनाएं रोज सामने आती हैं और सैकड़ों छिपी रहती हैं। राजनीतिक दल दुष्कर्म को लेकर एक-दूसरे की सरकारों को कठघरे में खड़े करने से बाज नहीं आते, लेकिन वे इस राष्ट्रव्यापी बीमारी को जड़ से उखाड़ने की तरकीब नहीं खोजते। दुष्कर्म की बेमिसाल सजा, जैसी मैंने बताई है, उसके इलाज की उत्तम दवा है ही, लेकिन पारिवारिक संस्कार व शिक्षा में मर्यादा की सीख भी जरूरी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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